अपने जमाने के माहिर कहानीकार महेश भट्ट ने 20 साल बाद इस फिल्म से बतौर डायरेक्टर वापसी की। उनके चाहने वालों को भरपूर उम्मीद थी कि वो कुछ अनूठा देंगे। मगर उन्होंने भी वही गलती रिपीट की, जो प्रकाश झा ने आश्रम तो सुभाष घई ने ‘कांची’ में की थी। वैसे ही पूरी फिल्म का बोझ संजय दत्त के कंधों पर लाद दिया, जैसे ‘ठग्स ऑफ हिंदोस्तान’ में अमिताभ बच्चन पर डाला गया था। कहानी, पटकथा, संवाद हर कुछ उस आदिम जमाने के लग रहे थे, जब दर्शकों को सिनेमा का एक्सपोजर कम था। मनोरंजन के लिए सिर्फ फिल्मों के ही वो मोहताज हुआ करते थे।
कैसी है फिल्म की कहानी
खुद कभी वो आध्यात्मिक गुरूओं के शागिर्द रहे हैं। यहां फिल्म में मगर उनकी नायिका आर्या देसाई(आलिया भट्ट) फर्जी बाबाओं के खिलाफ मोर्चा खोली हुई है। उसका साथ विशाल चव्हान ऊर्फ मुन्ना (आदित्य रॉय कपूर) दे रहा है। उसकी हकीकत और मोटिव हालांकि कुछ और है। दोनों के ‘कृष्ण’ सरीखे सारथी रवि किशोर(संजय दत्त) हैं, जो पश्चाताप की आग में जी रहा है। वो हर दिन सुसाइड अटेंम्प करता है। ताकि अपने प्यार पूजा वर्मा (पूजा भट्ट) के पास पहुंच सके। आर्या के चलते वह ऐसा नहीं कर पाता है। फिर तीनों कैलाश पर्वत के सफर पर निकलते हैं। फिर परतें उधरती चली जाती हैं। पता चलता है फर्जी बाबाओं से पहले तो अपनों से फर्जी रिश्तों की डोर से मुक्त होना है।
फिल्म में कुछ नया नहीं है
महेश भट्ट ने रायटर सुह्ता सेनगुप्ता के साथ ऐसी दुनिया दिखाई है, जो कन्वींस करने से ज्यादा हंसाती है। फर्जी बाबा ज्ञानप्रकाश(मकरंद देशपांडे) डराता कम हंसाता ज्यादा है। ‘सड़क’ में भी रवि लगातार सुसाइड करने के प्रयासों से जुझता रहता है। यहां भी वही रिपीट हुआ है। आर्या के प्रेमी का अतीत नशे की गिरफ्त में रहा है। वह सब भट्ट कैंप की पिछली फिल्मों में लोग देखकर थक चुके हैं।
संजय दत्त की उम्र और एक्शन के बीच नहीं दिखा तालमेल
रवि 50-55 का लगता है, मगर गुंडों का कचूमर यूं निकाल रहा है, जैसे सुपरमैन हो। ट्विस्ट लाने के लिए महेश भट्ट ने पहले आर्या के प्रेमी, फिर उसके पिता, साथ में उसकी सौतेली मां के मिजाज को अपनी मर्जी से तोड़ा मरोड़ा है। विलेन की पॉकेट में पुलिस वाला है। अचानक और जबरन गैंगस्टर दिलीप हटकटा की एंट्री होती है। वह सब बचकाना लगता है। महसूस होता है, जैसे कोई दोयम दर्जे का सीरियल देख रहे हैं।
फिल्म के डायलॉग पड़ गए फीके
फिल्म की राइटिंग ही इतनी लचर थी कि कुछेक थॉट वाले डायलॉग को छोड़ दें तो कोई कलाकार इसे संभाल नहीं पाते। न अपनी बेस्ट परफॉरमेंस दे पाते हैं। सिवाय जीशू सेनगुप्ता के, जो आर्या के पिता के रोल में हैं। वो एक हद तक सरप्राइज करते हैं। बाकी संजय दत्त से लेकर आलिया भट्ट, आदित्य रॉय कपूर आदि एक्टिंग के नाम पर बस औपचारिकता निभाते नजर आते हैं। आखिर में कैलाश के भी जो दर्शन हैं, वो वीएएफएक्स की उपज महसूस होती है।
फिल्म के दो गाने बस अच्छे बन पड़े हैं। जे आई पटेल की सिनेमैटोग्राफी अच्छी है। वह शायद इसलिए भी कि पूरी फिल्म पहाड़ों में है। कैमरा रख देने पर भी दृश्य अच्छे कैप्चर हो जाते है। हालांकि वह भी आलिया भट्ट की ही हाईवे के मुकाबले कमतर है। कहानी गॉडमैन के पीछे पड़ी है। पर उन्हें गंभीर तर्कों से खारिज किया जाना चाहिए था, पर वह अतिनाटकीय सी बनी हुई है।
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